अहंकार के वशीभूत होकर उच्च कोटि के विद्वान और चतुर पुरुष भी इस भवसागर की दलदल में फँस जाते है। परन्तु हे साई। आप केवल अपनी शक्ति से असहाय और सुहृदय भक्तों को इस दलदल से उबारकर उनकी रक्षा किया करते है। पर्दे की ओट में छिपे रहकर आप ही तो सब न्याय कर रहे है। फिर भी आप ऐसा अभिनय करते है, जैसे उनसे आपका कोई सम्बन्ध ही न हो। कोई भी आप की संपूर्ण जीवन गाथा न जान सका। इसलिये यही श्रेयस्कर है कि हम अनन्य भाव से आपके श्रीचरणों की शरण में आ जायें और अपने पापों से मुक्त होने के लिये एकमात्र आपका ही नामस्मरण करते रहे। आप अपने निष्काम भक्तों की समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर उन्हें परमानन्द की प्राप्ति करा दिया करते है। केवल आपके मधुर नाम का उच्चारण ही भक्तों के लिये अत्यन्त सुगम पथ है।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 46)
चना लीला
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शिरडी में बाजार प्रति रविवार को लगता है । निकटवर्ती ग्रामों से लोग आकर वहाँ रास्तों पर दुकानें लगाते और सौदा बेचते है । मध्याहृ के समय मसजिद लोगों से ठसाठस भर जाया करती थी, परन्तु इतवार के दिन तो लोगों की इतनी अधिक भीड़ होती कि प्रायः दम ही घुटने लगता था । ऐसे ही एक रविवार के दिन श्री. हेमाडपंत बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे । शामा बाबा के बाई ओर व वामनराव बाबा के दाहिनी ओर थे । इस अवसर पर श्रीमान् बूटीसाहेब और काकसाहेब दीक्षित भी वहाँ उपस्थित थे । तब शामा ने हँसकर अण्णासाहेब से कहा कि देखो, तुम्हारे कोट की बाँह पर कुछ चने लगे हुए-से प्रतीत होते है । ऐसा कहकर शामा ने उनकी बाँह स्पर्श की, जहाँ कुछ चने के दाने मिले । जब हेमाडपंत ने अपनी बाईं कुहनी सीधी की तो चने के कुछ दाने लुढ़क कर नीचे भी गिर पड़े, जो उपस्थित लोगों ने बीनकर उठाये । भक्तों को तो हास्य का विषय मिल गया और सभी आश्चर्यचकित होकर भाँति-भाँति के अनुमान लगाने लगे, परन्तु कोई भी यह न जान सका कि ये चने के दाने वहाँ आये कहाँ से और इतने समय तक उसमें कैसे रहे । इसका संतोषप्र
द उत्तर किसी के पास न था, परन्तु इस रहस्य का भेद जानने को प्रत्येक उत्सुक था । तब बाबा कहने लगे कि इन महाशय-अण्णासाहेब को एकांत में खाने की बुरी आदत है । आज बाजार का दिन है और ये चने चबाते हुए ही यहाँ आये है । मैं तो इनकी आदतों से भली भाँति परिचित हूँ और ये चने मेरे कथन की सत्यता के प्रमाणँ है । इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है । हेमाडपंत बोले कि बाबा, मुझे कभी भी एकांत में खाने की आदत नहीं है, फिर इस प्रकार मुझ पर दोशारोपण क्यों करते है । अभी तक मैंने शिरडी के बाजार के दर्शन भी नहीं किये तथा आज के दिन तो मैं भूल कर भी बाजार नहीं गया । फिर आप ही बताइये कि मैं ये चने भला कैसे खरीदता और जब मैंने खरीदे ही नही, तब उनके खाने की बात तो दूर की ही है । भोजन के समय भी जो मेरे निकट होते है, उन्हें उनका उचित भाग दिये बिना मैं कभी ग्रहण नहीं करता । बाबा-तुम्हारा कथन सत्य है । परन्तु जब तुम्हारे समीप ही कोई न हो तो तुम या हम कर ही क्या सकते है । अच्छा, बताओ, क्या भोजन करने से पूर्व तुम्हें कभी मेरी स्मृति भी आती है । क्या मैं सदैव तुम्हारे साथ नहीं हूँ । फिर क्या तुम पहले मुझे ही अर्पण कर भोजन किया करते हो ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
श्री साईं सच्चरित्र अध्याय 24
AUM SAI RAM
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